इस पोस्ट को लिखने में मुझे क़रीब एक महीना से ज़्यादा की साधना करनी पड़ी। क्योंकि मेरा अनुभव नहीं बने तो मैं नहीं लिखूँगा यह पहली condition है। बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव होता है यह आध्यात्मिक यात्रा का। अपने हाथों अपनी मौत की घोषणा करने जैसा है। मैं कहा करता था दोस्तों की कि मैं अपने उठवाने की पत्रिका खुद छपवाकर सबको पहले ही दे जाऊँगा। और और दोस्तों से मिलते ही मैं उनको भी पूछता था 'क्यों ज़िंदा हो अभी तक, मरे नहीं? तुम्हारी भी पत्रिका छपवा ली है मैंने तो। मेरे साथ कौन जाएगा फिर?'

आज मरा हूँ, और यह मेरी उठावना पत्रिका समझी जाये। ऐसी तो कल्पना भी नहीं की थी, ख़ैर जो भी है ठीक ही है।

याद आ रहे हैं गोरखनाथ भी। मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा। उस मरनी मरो, ज्यों गोरख मरी दीठा।।

कबीर का गीत:
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥ ( शरीर को चादर कहा है)
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साँइ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर हिंदू और मुस्लिम ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥

इस शरीर को एक ओढ़ी हुई चादर की तरह शरीर के ऊपर से हटा कर घड़ी करके ईश्वर को वापस सौंप देने की बात कर रहे हैं कबीर. यह शरीर और आत्मा अलग अलग ही मिले थे, फिर बचपन से जवानी के बीच पता नहीं कब और कैसे इसे हम ओढ़ लेते हैं और इसी को अपना या खुद के होने को मानने लगते हैं। और फिर सारा संसार बुन लिया जाता है मन को जगह मिल गयी काम करने की.

कबीर ने खुद को जाना और एक दिन वापस खुद को और शरीर को अलग करके रख दिया। उस दिन यह गीत फूटा होगा उनसे। यह अहंकार के शून्य हो जाने की दशा है। उसके इस शरीर से तादात्म्य हो जाने के कारण ही जो भी कर्म शरीर करता था तो अहंकार के कारण लगता था कि मैं कर रहा हूँ। बस कर्ता बनते ही व्यक्ति उस कर्म के परिणाम का भी हिस्सेदार हो जाता है। यह जीवन ऐसा है जैसे कोयले की सुरंग लम्बी सुरंग में कोई एक कोने से दूसरे कोने जाए। यह असम्भव है की उसपर कोई दाग नहीं लगे। लेकिन दूसरे कोने पर निकलने का मतलब ही है कि व्यक्ति ने अपने शरीर को आत्मा से अलग करने में सफलता हासिल कर ली है। जब दोनों अलग हो गए तो कर्म शरीर ने किये, आत्मा तो बस दृष्टा है कुछ करती ही नहीं। और कबीर अब शरीर तो हैं ही नहीं। आत्माराम हो गया उनका नाम।

यह ऐसा है जैसे हम किसी मृतक को उसके कर्म की सजा दें। उसने किए होंगे कर्म लेकिन अब उसकी सजा भुगतने वाला कोई है ही नहीं। तो यदि उसे सजा नहीं दी जा सकती तो उसने कर्म भी नहीं किए यही मानना होगा। इसलिए कबीर के शरीर पर काजल के दाग होते हुए भी उन्होंने उसको ज्यों की त्यों धर देने में सफल हुए। बुद्ध ने इसे कहा कि ज्ञान प्राप्त होने पर सारे पापों की गठरी जो तुम अबतक लिए फिर रहे थे वह जल जाएगी।

भयंकर हत्यारा अंगुलिमाल को जब बुद्ध ने उसी गाँव में भिक्षा माँगने भेजा जिसके 999 लोगों की वह हत्या कर चुका था, तब पहले तो लोगों ने अपने दरवाज़े खिड़की बंद कर लिए फिर जब डर ख़त्म हुआ तो उसको पत्थर से पीट पीट कर अधमरा कर दिया।

बुद्ध को खबर लगी तो वे दौड़ कर आए और पूछा, 'अंगुलिमाल लोग जब पत्थर मार रहे थे तो तुमको कैसा लग रहा था?'

अंगुलिमाल बोला, 'जब मैं हूँ ही नहीं तो मुझे तो लगा ही नहीं कुछ, सब शरीर को ही लगा'.

बुद्ध ने कहा, 'तुम ज्ञान को प्राप्त हुए अंगुलिमाल, धन्य हो तुम अमर हो गए'। और अंगुलिमाल का सार बुद्ध ने अपनी गोद में ले लिया ताकि सम्मान पूर्वक शरीर त्याग सके. यह है जिसे कबीर ने कहा 'ज्यों के त्यों धर दिनी चादरिया'.

अंगुलिमाल यदि ज़िंदा छोड़ दिया जाता उस दिन तो महान और अनोखे संत के रूप में उसके अनुभव से हमको अपनी यात्रा के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र मिल सकते थे क्योंकि वह काफ़ी कुछ हमसे मिलता जुलता था। अपने मन में हमने कोई काम लोगों की हत्या की योजना बनाई है? काफिर हैं जो उनको पूरा नहीं कर सके, इसीलिए ज्ञान प्राप्ति में भी नहीं सफल हो सके। बड़े हिम्मतवालों का काम है, इसीलिए तो बुद्ध को उसमें कोई उम्मीद नज़र आयी।