"इसी पूना में यह घटना घटी।
महात्मा गांधी ने उपवास किया डाक्टर अंबेदकर के विरोध में। क्योंकि डाक्टर अंबेदकर चाहते थे कि शूद्रों को, हरिजनों को अलग मताधिकार प्राप्त हो जाये।
काश, डाक्टर अंबेदकर जीत गये होते तो जो बदतमीजी सारे देश में हो रही है वह नहीं होती।
अंबेदकर ठीक कहते थे कि जिन हिंदुओं ने इतने दिन तक शूद्रों के साथ अमानवीय व्यवहार किया, उनके साथ हम क्यों रहें? क्या प्रयोजन है? जिनके मंदिरों में हम प्रविष्ट नहीं हो सकते, जिनके कुओं से हम पानी नहीं पी सकते, जिनके साथ हम उठ-बैठ नहीं सकते, जिन पर हमारी छाया पड़ जाये तो जो अपवित्र हो जाते हैं--उनके साथ हमारे होने का अर्थ क्या है? उन्होंने तो हमें त्याग ही दिया है, हम क्यों उन्हें पकड़े रहें?
यह बात इतनी सीधी-साफ है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। लेकिन महात्मा गांधी ने उपवास कर दिया।
वे अहिंसक थे, उन्होंने अहिंसा का युद्ध छेड़ दिया!
उन्होंने उपवास कर दिया कि मैं मर जाऊंगा, अनशन कर दूंगा।
यह तो बड़ी संघातक हानि हो जायेगी हिंदुओं की। हरिजन तो हिंदू हैं और हिंदू ही रहेंगे।
उनका लंबा उपवास, उनका गिरता स्वास्थ्य, अंबेदकर को अंततः झुक जाना पड़ा। अंबेदकर राजी हो गये कि ठीक है, मत दें अलग मताधिकार।
और इसको गांधीवादी इतिहासज्ञ लिखते हैं--अहिंसा की विजय!
अब यह बड़ी हैरानी की बात है इसमें अहिंसक कौन है?
अंबेदकर अहिंसक है।
यह देखकर कि गांधी मर न जायें, वह अपनी जिद छोड़े। इसमें गांधी हिंसक हैं।
उन्होंने अंबेदकर को मजबूर किया हिंसा की धमकी देकर कि मैं मर जाऊंगा।
इसको थोड़ा समझना, अगर तुम दूसरे को मारने की धमकी दो तो यह हिंसा, और खुद को मारने की धमकी दो तो यह अहिंसा; इसमें भेद कहां है?
एक आदमी तुम्हारी छाती पर छुरा रख लेता है और कहता है निकालो जेब में जो कुछ हो--यह हिंसा। और एक आदमी अपनी छाती पर छुरा रख लेता है वह कहता है निकालो जो कुछ जेब में हो, अन्यथा मैं मार लूंगा छुरा। तुम सोचने लगते हो कि दो रुपट्टी जेब में हैं, इसके पीछे इस आदमी का मरना! भला-चंगा आदमी है, एक जीवन का खो जाना…तुम दो रुपये निकालकर दे दिये कि भइया, तू ले ले, और जा। दो रुपये के पीछे जान मत दे।
इसमें कौन अहिंसक है? मैं तुमसे कहता हूं: डाक्टर अंबेदकर अहिंसक हैं, गांधी नहीं।
मगर कौन इसे देखे, कैसे इसे समझा जाये?
इसमें लगता ऐसे है, अहिंसा की विजय हो गयी; अहिंसा हार गयी, इसमें हिंसा की विजय हो गयी। गांधी हिंसक व्यवहार कर रहे हैं।
जो तर्क नहीं दे सकता, वह इस तरह के व्यवहार करता है।"
…
गांधी बाबा के चेलों को देखा, तीस साल से इस देश में क्या कर रहे हैं? अच्छे लोग थे।
बुरे लोग थे, ऐसा नहीं कह सकते। जब तक सत्ता में नहीं थे तब तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि बुरे लोग साबित होंगे।
न शराब पीते थे, न मांस खाते थे, खादी पहनते थे, हाथ से बुनाई करते थे, चर्खा चलाते थे। सिगरेट नहीं, पान नहीं, तंबाकू नहीं; व्रत-उपवास-नियम करते थे, देश की सेवा करते थे। अच्छे लोग थे--सेवक थे।
फिर क्या हुआ, सत्ता में जाते से कैसे यह शकल बदल गयी?
तो ऐक्टन की बात कि सत्ता विकृत करती है, ठीक तो लगती है, फिर भी मैं कहता हूं उसमें एक भूल है; और भूल यह है कि सत्ता लोगों को विकृत नहीं करती, सत्ता केवल लोगों के असली चेहरे उघाड़ देती है।
सत्ता विकृत नहीं करती, सत्ता केवल नग्न कर देती है। सत्ता के पहले आदमी वस्त्रों में छिपा होता है, क्योंकि सत्ता के पहले तुम्हें पकड़े जाने का डर होता है। तुम्हारे पास ताकत कितनी है? सामर्थ्य कितनी है?
सत्ता में पहुंचकर तुम्हारे हाथ में सामर्थ्य आ जाती है। फिर तुम जो चाहो कर सकते हो, कौन तुम्हें पकड़ेगा? तुम पकड़नेवाले हो, पकड़ेगा तुम्हें कौन?
तुम्हारे हाथ में सारी ताकत है। और जिसके हाथ में लाठी है, उसकी भैंस है। सत्ता की लाठी तुम्हें आश्वस्त कर देती है कि अब दिल खोलकर करो, जो तुम सदा करना चाहते थे औैर नहीं कर पाये, क्योंकि सत्ता नहीं थी करने की। पकड़े जाते।
सत्ता किसी को विकृत नहीं करती; मेरे देखे तो सत्ता में जाने को उत्सुक वे ही लोग होते हैं जो विकृत हैं। लेकिन अपनी विकृति को खुलकर खेलने का मौका नहीं है।
हाथ कमजोर हैं। दिल में तो पूरी भरी है आग, मगर डरते हैं कि अभी प्रगट करेंगे तो जो थोड़ा-बहुत सम्मान है वह भी छिन जायेगा।
सत्ता में पहुंचकर कौन सम्मान छीनेगा? सत्ता में पहुंचकर जो करेंगे वही ठीक होगा।
शक्तिशाली जो करता है वही ठीक है। शक्तिशाली पर कोई नियम लागू नहीं होते, शक्तिशाली नियमों के ऊपर होता है। और सब पर नियम लागू होते हैं।
इसलिए सत्ता भ्रष्ट करती मालूम होती है, सत्ता भ्रष्ट करती नहीं। सत्ता केवल उघाड़कर रख देती है।
सत्ता तुम्हारी नग्न तस्वीर जाहिर कर देती है, तुम कैसे हो, तुम कौन हो, तुम क्या हो?
(from "मरौ हे जोगी मरौ – Maro He Jogi Maro (Hindi Edition)" by Osho .)
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