हम असत्य से सत्य की ओर बढ़ें, हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ें तभी मृत्यु से अमृत की ओर बढ़ सकेंगे। तत् त्वम असि ।

फ़ेसबुक पर BBC News हिंदी का एक पोस्ट बड़ा रोचक हो गया। उसके माध्यम से शायद और कुछ लोगों तक यह जानकारी पहुँचे इसलिए यह ब्लॉग पोस्ट।

उनको मेरे अनुभव से कुछ समझाने के लिए मैंने फ़ेस बुक पर एक दूसरा पोस्ट उनके साथ share किया comment में।

Facebook के ही दूसरे पोस्ट से उदाहरण लेकर मेरा विचार बताने का प्रयत्न किया है। यह व्यक्ति जिसने अपने आप को पदक से ज़्यादा समझा, यह Christian होते हुए भी हिंदू है, यह संसारी होकर भी साधु है। जैसे कबीर हुए। यह धर्म की यात्रा पर निकल चुका, चर्च से शिक्षा लेकर। सिर्फ़ जैन धर्म ऐसे लोगों को भी नमस्कार करता है अपने नमोकार मंत्र में।

'नमों लोए सव्वसाहूनम'-जो भी धर्म की यात्रा पर निकल चुके हैं लेकिन अभी संसारी हैं, उनको भी नमस्कार।

लेकिन हमको अपने शब्दों में समझना होगा उसको। और महावीर ने कहा यह पहला कदम लेना ही सबसे कठिन है, चीन के लाओ त्ज़ु ने कहा कि जिसने पहला कदम उठा लिया वह पहुँच ही चुका बस कुछ समय की ही बात है। जापानी zen साधु इसलिए अपने शिष्यों को भी उसी तरह झुककर प्रणाम करते हैं जैसे उसने किया है।

अब महावीर की शिक्षा हमने मंत्र तक ही सीमित कर दी, लेकिन सत्य कहीं रुका है वह जापान में प्रकट होकर विद्यमान है। धर्म को हमने विकृत रूप दे दिया तो सत्य पश्चिम में अनुसंधान के रूप में विद्यमान है। अब हम कहते हैं कि हमको मत सिखाओ हमको बहुत पहले से पता है। तो ज़रा ध्यान देने की ज़रूरत है। यदि हमने विकृत नहीं किया होता तो वे हमको समझाते ही क्यों और कैसे? यह अपनी गलती का स्वीकार भाव यदि अब भी नहीं आया तो शायद फिर कभी नहीं आएगा। गाय, जातीगत व्यवहार और मुसलमान छूट गए हमसे तो आज भी इस धरा पर पहले रहे सभी संतों की नज़रें इनायत हो सकती हैं।

हमारे ऋषि मुनियों ने यही शिक्षा सबसे पहले दी है। जब लाओ त्ज़ु से पूछा गया तो उसने यही कहा था कि यह ज्ञान हिमालय के पास जो लोग रहते हैं से आया है। और वह अपने शरीर को छोड़ने हिमालय ही जा रहा था तब राजा ने पकड़कर उसका ज्ञान लिखवाया, जो 'Tao te Ching' नाम से मौजूद है।

हमने अपने फ़ायदे के लिए सत्य को बदल दिया लेकिन सत्य ऐसे कहीं बदला है?

वैसे सभी अपने धर्म की यात्रा पर हैं, और उसके लिए हम आज कहाँ हैं यह पता लगना ज़रूरी है। जैसे आईआईटी कोचिंग वाले पहले टेस्ट लेते हैं कि बच्चे को कितना ज्ञान है, उसी अनुसार उसको शिक्षा भी देना होगी। अपने धर्म की, अपने सत्य की यात्रा पर निकलना ही हिंदू होना है। मंदिर में तो कम बुद्धि वाले को जाने की ज़रूरत होती है, ताकि आपको इस यात्रा पर जाने लायक़ बुद्धि प्राप्त हो सके साधु संतों की वाणी के माध्यम से। अब जो व्यक्ति उनका प्रबंध करेगा उसकी रोजी रोटी का प्रबंध भी करना होगा समाज को, इसलिए मंदिर, नहीं तो गुरुजी आए और सारे लोग अपने काम में व्यस्त हैं दिनभर। इसीलिए नेहरू ने पहला बांध बनने पर कहा 'ये आज के मदिर हैं' यानी यहाँ से हमारी जो आमदनी होगी उससे लोगों की भूख मिटेगी। प्रगति होगी और तभी वे धर्म की यात्रा पर निकल पाएँगे, अभी तो भूख का इंतज़ाम करने में ही जीवन निकल जाता है।

तो उस सत्य का अनुसंधान खुद पर करने का समय नहीं मिलता। और यही धर्म को स्थापित करना है। मंदिरों से पुराने जमाने में हुआ था। साधु के प्रवचनों से पुराने जमाने में हुआ था। अब तो सोशल मीडिया पर ही उपलब्ध है, और इंटर्कॉंटिनेंटल भोजन ( अनुभव) मौजूद है तो कोई क्यों रोज़ जो खाता है वह खाएगा?

अब इन बच्चों को ज़बरदस्ती करके तुम हिंदू नहीं बना सकते। हिंदू तो कोई इच्छा से ही बनता है। और ऐसा हिंदू ही मुसलमान या अन्य को अपने से अलग नहीं समझेगा , वह दूसरे कॉलेज का विध्यार्थी है बस।